कोशी तक/ बिहारीगंज मधेपुरा
भारत की प्राचीन संस्कृति और परंपराएं इतनी गहरी और समृद्ध हैं कि हर पर्व और तिथि का एक अलग अपना महत्व है। हमारे पंचांग और त्योहार प्रकृति के चक्र, ऋतुओं और खगोलीय घटनाओं पर आधारित हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या 1 जनवरी को नव वर्ष मनाना हमारी सांस्कृतिक जड़ों से मेल खाता है?
1 जनवरी को नया साल मनाना पश्चिमी कैलेंडर ग्रेगोरियन कैलेंडर का अनुसरण है, जो औपनिवेशिक काल से हमारे देश में प्रचलित हुआ। परंतु यह तिथि हमारी भारतीय सभ्यता और सांस्कृतिक परंपराओं से नहीं जुड़ी है। भारतीय परंपरा में नव वर्ष का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को होता है, जिसे विक्रम संवत के अनुसार नववर्ष का प्रथम दिन माना जाता है। इस दिन प्रकृति नई ऊर्जा से भरपूर होती है—पेड़-पौधों में नए पत्ते आते हैं, फसलें कटाई के लिए तैयार होती हैं, और बसंत का आगमन होता है।
दिनकर जी ने अपनी कविता यह "नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं" में इसी सांस्कृतिक संकट को उजागर किया है। वे लिखते हैं:
हिमालय के आंगन में, बसा हुआ जो देश है।
बलि देकर जिसके लिए, जमा हुआ सुरेश है।
अग्नि बिंब सा उज्ज्वल, जो शोभा पाता है।
फिर क्यों, धूलि-धूसरित वसन पहनाता है?
क्यों अपने मस्तक पर, कलंक धारता है?
हम उसे नव वर्ष मानते हैं, जो नव नहीं है।
भारतीय नववर्ष की विशेषता
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नववर्ष मनाने के कई धार्मिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक कारण हैं:
1. ऋतु परिवर्तन: यह समय वसंत ऋतु का आरंभ है, जो नई ऊर्जा और सृजन का प्रतीक है।
2. पंचांग का आधार: विक्रम संवत भारतीय पंचांग का आधार है, जो खगोलीय गणनाओं पर आधारित है।
3. धार्मिक मान्यता: इस दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। इसे गुड़ी पड़वा, उगादि, और चेटीचंड के रूप में भी मनाया जाता है।
1 जनवरी का प्रभाव और हमारी जिम्मेदारी
औपनिवेशिक मानसिकता ने हमें पश्चिमी परंपराओं को अपनाने के लिए प्रेरित किया। इस कारण आज अधिकांश भारतीय 1 जनवरी को नववर्ष मनाते हैं, जबकि यह केवल एक तिथि है, जिसका हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक या प्राकृतिक परिवेश से कोई संबंध नहीं।
निष्कर्ष
भारतवासी होने के नाते हमें अपनी परंपराओं और सांस्कृतिक धरोहर का सम्मान करना चाहिए। दिनकर की कविता हमें यह याद दिलाती है कि हमारी पहचान हमारी संस्कृति से है, न कि पश्चिमी परंपराओं के अंधानुकरण से। यदि हम अपने नववर्ष को सही मायनों में समझें और मनाएं, तो यह न केवल हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है, बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी गर्व की अनुभूति कराएगा। इसलिए, हमें 1 जनवरी के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को अपना नववर्ष मानकर इसे हर्षोल्लास के साथ मनाना चाहिए। यही हमारी संस्कृति के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
रचनाकार जितेन्द्र कुमार, शिक्षक सह साहित्यकार